चिंतन-मनन
सौंधी महक के ये झोंके सारे छूटे अतीत के पीछे
गैय्या छूटी, बछिया छूटी, छूटी कुटिया भी पीछे
दोस्तों कि महफ़िल वहीँ झुकी-झुकी डाल के नीचे
मैय्या छूटी, बहना भी छूटी, छूट गयी सरसों पीछे
गया बचपन कहाँ, आ गयी रोजी-रोटी की बारी
आया शहर, गुजरे गाँव, आँगन, सूप, और झारी
याद बहुत आती है अब्ब्बू के संग मेड पर झाड़ी
कल्लू की गप्पें, संतू के नगमे, गिल्ली की पारी
शहर है सूना, अंजाम भयावह, है रोटी का वादा
रहा पेट खाली, तो मिला कभी रोटी का आधा
हर दिन भूक, थकन, पर है एक रोटी का वादा
हस्ती है लावारिस, ज्यों बीत गया जीवन आधा
शहरी भीड़ की तन्हाई में सपना छोटू की पढाई
बाकी हैं बनिए के पैसे, औ’ अब्बू की फटी रजाई
मोतिया बिंद माँ की आँखों का, बहन की सगाई
खाद-बीज, बुआई-कटाई, टूटी छत, रंगाई-पुताई
डूबते सूरज को करूं अर्पित थके जिस्म का पसीना
कमर कसे चला ढूँढने खुशी, माँ का का नूर-नगीना
ठोकर खाता, गिरता, फिर उठता बीता एक महीना
कठोर आभास से फेल हुआ कुछ मरने जैसा जीना
अगस्त २००५
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