विवश्ता
मेरी किस मजबूरी की अब तुम्हे है तालाश
मजबूरी-ए-हालात, या सारा डूबता आकाश
तुम्हारी चाहत में खोया इबादत का ढंग
हर सांस पे चढ़ता-उतरता उल्फत का रंग
बिन तुम्हारे मेरा यह पागलों सा आलम
खोया सा, बेख्वाब,यूंही बेकल सा हर पल
यह अजनबी दिल कभी मेरा ही न हुआ
तुम पर ही आकर ठहरा, ये शीशा न हुआ
खुद भी हूँ अपने ही दिल के हाथों मजबूर
अपनी बेबाक तमन्ना या पैमाने का सरूर
मुहोब्बत इसे समझ कभी क्यों न आती है
हुस्न की करे खातिर, अक्ल इसे न आती है
अपने से ही करें बातें, रास इसे न आती है
हर उठते दर्द की दवा, दर्द ही नज़र आती है
२००९
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